शुक्रवार, 12 जून 2020

अर्जुन की व्यथा

घूमती मीन की आंखों को जिस अर्जुन ने था भेद दिया
आज मौन खड़ा है निर्बल सा जैसे खुद से ही हारा हुआ।
कुरुक्षेत्र की पावन धरती भी आज लगती है श्रापित मुझे
दोनों दलों में अपने हैं ना जाने ये क्या हो रहा।

मत मान हार तू ओ पथिक, रस्ता अभी भी शेष है
ले तू बस एक अल्पविराम, जय करना तुम्हे हर देश है।
यह धर्मयुद्ध है जिसके शत्रु दुर्योग से हमारे बंधु हैं
मानवता की रक्षा हेतु, अनिवार्य तुम्हारा वीर वेश है।

सुनकर केशव की ये बातें, हाथों में गांडीव उठा लिया
कर नमन श्रेष्ठ जनों को मन में, प्रत्यंचा मैंने चढ़ा लिया।
व्याकुल मन की पीड़ा ऐसी, अंदर से थी मानो रौंद रही
पर धर्म की रक्षा करने को इस विष को मैंने पी लिया।

सारथी बने थे वासुदेव, ऊपर स्वयं हनुमान आसीन थे
पवन वेग थी मेरे रथ की और तरकश बाणों से भरे हुए।
क्या सगे संबंधी क्या गुरु और क्या ज्येष्ठ मेरे खुद के कुल के
निर्मम मृत्यु का ना सिर्फ साक्षी बना आज हत्यारा भी मैं बन ही गया।।









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