रविवार, 14 जून 2020

लक्ष्मण

शेषनाग मैं!  मानव योनि में जन्म लेना मेरा निश्चित था
नियति ने रघुकुल में भेजा, बन सौमित्र पृथ्वी पर मैं आया।
पिता महाराज का लाड़ बहुत था, तीनों मांओं का स्नेह मिला
बाल सखा थे भाई मेरे - शत्रुघ्न, भरत और राम लला।

अगले चरण में गुरुकुल जाकर गुरु वशिष्ठ से शिक्षा पाई
ब्याह रचा उर्मिला के संग मिथिला का बन गया जमाई।
वचनबद्ध बेबस पिता ने जब अग्रज को दी वनवास की आज्ञा 
ना सोचा इक क्षण भी कुछ मैंने, बन योगी सब मोह त्याग दिया।

प्रहरी बन कर दिवा रात्रि सीताराम को निश्चिंत किया
और बन बावर्ची उन्हें खिलाया सनेहपुर्ण अधपका निवाला।
मारीच की चाल जान चुका था, फिर भी भाभी की हट्ठ को माना
निकल पड़ा श्री राम को ढूंडने, खींच अनोखी लक्ष्मण रेखा।

शूर्पणखा की नाक काटकर, नारी की सुन्दरता भंग करी
उस स्त्री में छल बहुत था, उसकी धृष्टता की यही सजा थी।
सीता मैया की खोज में जाने कितने वीरों से भेंट हुई
इस पड़ाव पर आकर मैंने बजरंग बली की भक्ति देखी।

पहुंच गए हम लंका  नगरी, लेकर पहली वानर सेना
दानवों में भी शक्ति बहुत थी, ब्रहमास्त्र से चोटिल हो यह जाना।
संजीवनी ने जीवन दान दिया फिर मेघनाद का अंत किया
रह प्रभु की छाया में मैं, रावण वध का साक्षी बना।।




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें