शनिवार, 18 जुलाई 2020

कलयुग

जब हुई भिन्न मानव से मानवता
हुई समाप्त धर्म व सत्य की मर्यादा।
फिर कलयुग ने भीषण हुंकार भरी
छल प्रपंच से भरी ये दुनिया आयी।।

विद्या विद्वानों से रूठ गई
चंचल लक्ष्मी की गति विपरीत हुई।
निर्बल निर्धन भी होते रहे
सबलों की हांडी भरती गई।।

प्रकृति संग खूब खिलवाड़ हुआ
विज्ञान के हत्थे सब संसाधन चढ़ा।
प्रगति के नाम पर क्या कुछ ना गवाया 
पृथ्वी को बंजर नकारा बनाया।।

अकारण शोध करने हेतु
अंतरिक्ष को भी ना हमने छोड़ा।
अपनी सुख सुविधा की वस्तु के लिए
वातावरण की परतों को छेद दिया।।

यह समय है जागृत होने का
खोया हुआ अमृत पाने का।
यह त्याग निष्चित ही कठिन होगा
पर निःसंदेह वो कल हमारा सुखमय होगा।।

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